नागपंचमी विशेष: श्रावण शुक्ल पंचमी तिथि को सूर्य आश्लेषा नक्षत्र में होने से नागपूजन शुभ

वर्तमान में सर्वकामना पूर्ति के उद्देश्य से श्रावण मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी को नागपंचमी का प्रमुख त्योहार मनाए जाने की पौराणिक परिपाटी है। इस दिन भारत में नाग देवता पूजा, अथवा सर्प पूजन व दुग्ध स्नान की प्राचीन परम्परा रही है। इस दिन अष्टनागों की भी पूजा की जाती है। वर्तमान में कहीं-कहीं दूध पिलाने की परम्परा भी दिखाई देती है, जबकि नाग को दूध पिलाने से पाचन नहीं हो पाने अथवा प्रत्यूर्जता से उनकी मृत्यु हो जाती है। इसलिए पौराणिक ग्रंथों में भी नागों को दूध पिलाने के लिए नहीं बल्कि सिर्फ दुग्ध स्नान कराने की बात ही कही गई है।   नाग पूजा का उद्देश्य पृथ्वी तथा उसके ऊपर मनुष्य रूप नागों के कार्य में सहयोग के लिए शक्ति देना है, जिससे वे विश्व का भरण पोषण कर सकें। इसे देवों द्वारा दिया गया आज्य कहा है। आज्य का स्रोत दूध है, जो प्रतीक रूप में दिया जाता है। इसकी व्याख्या वेदों की सर्पविद्या में थी, जो लुप्त है। आश्लेषा, तैत्तिरीय ब्राह्मण में जिसे आश्रेषा भी कहा गया है, के देवता सर्प हैं। यह नक्षत्र मुख्यतः ब्रह्माण्ड की सर्पिल भुज के मध्य में है। श्रावण मास में विशेषतः श्रावण शुक्ल पंचमी तिथि के निकट सूर्य आश्लेषा नक्षत्र में रहता है। पूर्णिमा को चन्द्रमा इसके विपरीत श्रवण नक्षत्र में रहेगा, जिसका देवता सर्प का विपरीत गरुड़ है। इसलिए इस समय नाग पूजा होती है।

शतपथ ब्राह्मण 13/8/4/1 में कहा गया है-
वृत्रशङ्कुं दक्षिणतोऽधस्यैवानत्ययाय।
अर्थात- सूर्य जब पृथ्वी सतह पर सबसे दक्षिण रहता है, तब वह श्रवण अर्थात तीन तारा, तार्क्ष्य अर्थात गरुड़ नक्षत्र में होता है। उसके बाद उत्तरायण होने पर उत्तरी गोलार्ध में वृत्र अर्थात रात्रि का मान कम होने लगता है। अतः श्रवण का देवता गरुड़ है।

उल्लेखनीय है कि सर्प अर्थात नाग का पूजन भारतीय संस्कृति की विशिष्टता की पराकाष्टा है। कृण्वन्तो विश्वमार्यम्‌ के मार्ग पर चलते हुए भारतीयों ने जिसके काटे जाने से मृत्यु का भय हो, उस नाग को भी देव के रूप में स्वीकार कर अपने हृदय की विशालता को ही प्रकट किया है। कृषि प्रधान देश भारत में सर्प को खेतों का रक्षक, क्षेत्रपाल माना जाता है। सर्पों को सुगंध अत्यंत प्रिय है। सांप चंपा के पौधे, चंदन के वृक्ष और केवड़े के वन में निवास करना पसंद करते हैं। सांप को सुगंध प्रिय लगने के कारण ही वह भारतीय संस्कृति को भी प्रिय है। प्रत्येक मानव को जीवन में सद्गुणों की सुगंध आती है, सुविचारों की सुवास आती है, वह सुवास हमें प्रिय होनी चाहिए। सर्प बिना कारण किसी को नहीं काटते। वर्षों परिश्रम से संचित शक्ति अर्थात विष वह किसी को यूं ही अकारण काटकर व्यर्थ खो देना नहीं चाहते। सर्पों से सीख लेकर मनुष्यों को भी जीवन में तप से पैदा हुई शक्ति को किसी पर व्यर्थ गुस्सा करने में, निर्बलों को हैरान करने में अथवा अशक्तों को दुःख देने में व्यर्थ न कर उस शक्ति को विकास करने में, दूसरे असमर्थों को समर्थ बनाने में, निर्बलों को सबल बनाने में खर्च करना चाहिए।

नाग का सामान्य अर्थ सर्प है, किन्तु वेद तथा पौराणिक ग्रंथों में इसका कई अर्थों में प्रयोग हुआ है। पौराणिक वर्णनों के अनुसार नाग मनुष्य जाति है, जिसके भारत तथा विदेशों में कई विभाग हैं। यह भारत में ब्राह्मणों की एक उपाधि है। कई क्षत्रिय राजा नागेश्वर गोत्र के हैं। वैश्यों में अग्रवाल नाग जाति के हैं, अन्य माहेश्वरी हैं। झारखण्ड में तेली जाति में भी नाग गोत्र के लोग हैं। प्राचीन काल में भारत के बाहर भी आन्तरिक तथा समुद्री व्यापार करने वाले नाग थे, जिनके नाम आज तक भी जापान, मेक्सिको, अफ्रीका, मध्य एशिया आदि में सुरक्षित हैं। आठ दिशाओं के नाग आठ महाद्वीपों की सीमा हैं। अनन्त अर्थात अण्टार्कटिक सहित। नग अर्थात गति नहीं करने वाला, पर्वत। उसके निवासी भी नाग हैं। जैसे- नागालैण्ड। भारत के नौ खण्डों में एक खण्ड नागद्वीप है, जो अण्डमान से सुमात्रा, यवद्वीप तक है। आकाश में ब्रह्माण्ड आदि की सीमा नाग है। ब्रह्माण्ड की सर्पाकार भुजा भी नाग है, जिसका बाहरी छोर अश्लेषा नक्षत्र है, उसका देवता नाग है। सर्पाकार भुजा का क्षेत्र महः लोक है, जिसकी पृथ्वी पर प्रतिमा चीन है। महः के निवासियों को ब्रह्मा ने महान या हान कहा था। इसलिए चीन भी नाग क्षेत्र है। नाग या वृत्र आठवां आयाम है, जो कण से लेकर ब्रह्माण्ड तक को घेरने वाली सीमा है। शरीर के भीतर एक उपप्राण वायु नाग है। इसलिए नाग शब्द का व्यवहार आठ संख्या के लिए होता है।

वैदिक ग्रंथों में सर्प के कई अर्थ हैं। शतपथ ब्राह्मण 1/1/3/4 और 1/6/3/9 में इसको आकाश का आठवां आयाम, वृत्र, अहि, नाग आदि कहा गया है। इस अर्थ में नाग, अहि, सर्प आदि का आठ संख्या के लिए व्यवहार होता है। यान्त्रिक विश्व के पाँच आयाम हैं-रेखा, पृष्ठ, आयतन, पदार्थ, काल। चेतना या चिति करने वाला पुरुष तत्त्व छठा आयाम है। दो पिण्डों या कणों के बीच सम्बन्ध ऋषि (रस्सी) सातवां आयाम है। पिण्डों को सीमा के भीतर घेरने वाला वृत्र या अहि है। आकाशगंगा अर्थात ब्रह्माण्ड की सर्पाकार भुजा अहिर्बुध्न्य में सूर्य के चारों तरफ भुजा की मोटाई का गोला महर्लोक है, जिसके एक हजार तारा शेष के एक हजार सिर हैं, जिनमें एक पर कण के समान पृथ्वी स्थित है। बुध्न्य अर्थात बाढ़, ब्रह्माण्ड का द्रव जैसा फैला पदार्थ, अप  उसमें सर्प जैसी भुजा अहिः। यही पौराणिक शेषनाग का वर्णन है। पृथ्वी की वक्र परिधि सतह सर्पराज्ञी है। सात द्वीपों को जोड़ने वाले आठ दिकनाग हैं। प्राचीन काल में समुद्री यात्रा मार्ग मुख्यतः उत्तर गोलार्ध में था। पृथ्वी पर वह मार्ग तथा उसके समान्तर आकाश का मार्ग नाग वीथी है। व्यापार के लिए वस्तुओं का परिवहन करने वाले नाग हैं, जो पूरे विश्व में फैले हैं। केन्द्रीय वितरक अग्रवालों में बड़े माने जाने वाले माहेश्वरी हैं।

पृथ्वी की नाग अर्थात गोलाकार पृष्ठ सीमा के भीतर रहने वाले सर्पाकार जीव भी सर्प हैं। ब्रह्माण्ड पुराण उपसंहार पाद, अध्याय 2 मे अंकित वर्णनानुसार आकाश में ब्रह्माण्ड की सर्पाकार भुजा में सूर्य केन्द्रित गोल सात लोकों के मध्य महः लोक है। आकाश के लोकों की तरह पृथ्वी के उत्तर गोल के भारत वाले पाद में भी विषुव से उत्तर ध्रुव तक सात लोक हैं, जिनमें मध्य चीन भाग महः लोक है। यहां के लोगों को ब्रह्मा ने महान कहा था, जिसका हान नाम आज भी प्रचलित है। महर्लोक में सर्प नक्षत्र आश्लेषा है, अतः चीन को भी सर्प भाग अर्थात ड्रैगन कहा जाता है।

योगचूडामणि उपनिषद 36 व 44 के अनुसार शरीर में मेरुदण्ड के नीचे मूलाधार के केन्द्र में साढ़े तीन चक्र की कुण्डलिनी है, जिसे सर्प कहा है। योगचूडामणि उपनिषद 22 -25 में नागवायु का वर्णन करते हुए कहा गया है कि शरीर में पाँच प्राण तथा पाँच उपप्राण हैं। नाग उपप्राण है जिसे सर्प की तरह लिपटे हुए आन्त्र से वायु निकलती है।शिवसंहिता, पटल 5 के श्लोक 70- 81 में विश्व मूल कुण्डलिनी का वर्णन करते हुए कहा गया है कि शरीर और विश्व दोनों की जननी कुण्डलिनी कहा है, जो साढ़े तीन चक्र बना कर अपने मुंह में पूंछ लिये हुए है। षट्चक्र निरूपण के अनुसार गुदा-मेढ्र के बीच योनि स्थान में पीछे की तरफ कन्द में कुण्डलिनी साढ़े तीन फेरा कर अपने मुंह में पुच्छ ले कर सुषुम्णा विवर में स्थित है। यह सर्प के समान प्रभा युक्त हो कर सन्धि स्थान में सोई है। यह वाग्देवी और बीज (उत्पत्ति स्रोत) है। कन्द में कुण्डलिनी केशाग्र का एक कोटि भाग में है, तथा उसके तन्तु उसका भी एक सौ भाग है। केशाग्र अर्थात 1 माइक्रोन अर्थात 10 घात (-6) मीटर। उसके कोटि भाग का 100 भाग अर्थात 10 घात (-15) मीटर। यह परमाणु की नाभि का आकार है। यह त्रिभुवन जननी है अर्थात मनुष्य आदि जीव, सभी भुवनों को जन्म देने वाली। यह धारा रूप में पूर्व जन्म के संस्कार का वहन करती है। सूक्ष्म रूप में परमाणु नाभि आकार की कुण्डलिनी से शरीर के गुण सूत्र निर्धारित होते हैं। आधुनिक विज्ञान के अनुसार यह डीएनए की भी रचना है, जिसमें मरोड़ी हुई तीन सीढ़ियों के मिलन जैसी रचना है। इससे शरीर के सभी गुण निर्धारित होते हैं। कठोपनिषद 2/3/1 के अनुसार इस बीज रूप से सृष्टि क्रम चलता रहता है जैसे वृक्ष मूल से शाखा फल होते हैं और उनके बीज से पुनः वैसा ही बीज उत्पन्न होता है। अतः शुक्र द्वारा सृष्टि को अमृत कहा गया है।

आयुर्वेद ग्रंथों में विषधर तथा बिना विष वाले कई प्रकार के नागों का वर्णन है। सामान्यतः वनस्पतियों, खनिजों के लिए नाग तथा जन्तुओं के लिए सर्प शब्द का व्यवहार है। सुश्रुत संहिता, कल्प स्थान, अध्याय 4-5 के अनुसार 5 प्रकार के सर्प हैं- पहले, दर्वीकर अर्थात  फण वाले 26 प्रकार के, दूसरे मण्डली अर्थात बिना फण के, विविध मण्डलों से चित्रित, 22 प्रकार के, तीसरे राजिमन्त अर्थात रेखायुक्त, बिना फण के, पुण्डरीक आदि कम विष वाले, 10 प्रकार के, चौथे, निर्विष अर्थात गल-लोमी, शूकपत्र आदि 12 प्रकार के, और पांचवें, वैकरञ्ज अर्थात अन्य जातियों के 3 प्रकार के। वर्तमान में सर्प तथा नाग का समान अर्थ में व्यवहार होने के बावजूद सर्प तथा नाग में अन्तर है। श्रीमद्भगवद्गीता 10/28-29 में भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं को सर्पों में वासुकि तथा नागों में अनन्त कहा है। आयुर्वेद सन्दर्भ में नाग वनस्पति तथा खनिज औषधियों के नाम हैं। रसरत्नसमुच्चय 1/41 में नाग खनिज, सीसा, सुश्रुत सूत्र 45/12 और रसरत्नसमुच्चय 21/25-28 में वनस्पति नागकेसर, रसरत्नसमुच्चय 24/136 में ताम्बूल, रसरत्नसमुच्चय 21/25-28 में एरण्द,अष्टांग संहिता शा 4/38 में सल्लकी, सुश्रुतउत्तर 60/36 में ग्रह भुजंगम, सुश्रुत सूत्र 5/21 में देवयोनि वासुकि आदि, सुश्रुत चिकित्सा 28/26 में पशुगज, सुश्रुत सूत्र 46/287 में नाग केसर शब्द आया है। रसरत्नसमुच्चय 21/29 में नागा, नाकुली वनस्पति, नागकन्द, हस्तिकन्द, नाग करण्डक, नागकर्ण, नागकुमारी, नागकुमारिका, नागकेसर, नागगन्धा, नागगर्भ, नागचपल, नागचम्पक, नागच्छत्रा, नागज (सिन्दूर), नागतुम्बी (राजनिघंटु 7/241 में इसे भूतुम्बी कहा गया है), नागदन्ती, नागदमनी, नाग पुष्प, नागबला, नागदमनी, नागवल्ली (ताम्बूल), नागराति (वन्ध्याकर्कोटकी), नागेन्दु, नागदन्ती आदि का प्रयोग हुआ है। प्राचीन काल में सर्पविद्या का भी प्रचलन था। वैदिक सर्पविद्या अंग का लोप होने के कारण कुछ लोग इस पर संदेह कर सकते हैं, परंतु शतपथ ब्राह्मण 4/4/5/3, 7/4/1/26, यजुर्वेद वाजसनेयी संहिता 13/6, ऐतरेय ब्राह्मण 5/33, तैत्तिरीय ब्राह्मण 1/4/6/6, 2/2/6/2, 3/1/4/7, शतपथ ब्राह्मण 2/1/4/30, 4/6/9/17, 13/4/3/9, ताण्ड्य महाब्राह्मण 9/8/7-8 आदि वैदिक ग्रंथों में अंकित सर्पविद्या संबंधी अंकित वर्णनों से इसकी पुष्टि ही होती है।

– अशोक “प्रवृद्ध”

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