चुनावी बॉन्ड पर सुप्रीम कोर्ट की रोक से कितना पड़ेगा चुनाव पर असर

चुनावी बॉन्ड भारत के किसी भी नागरिक या देश में स्थापित ईकाई द्वारा खरीदा जा सकता था। कोई भी व्यक्ति अकेले या अन्य व्यक्तियों के साथ मिलकर चुनावी बॉन्ड खरीद सकता था। सर्वोच्च न्यायालय ने 15 फरवरी, 2024 को सुनाए अपने ऐतिहासिक फ़ैसले में भारतीय जनता पार्टी की सरकार द्वारा जारी किये गये इलेक्टोरल (चुनावी) बॉण्ड्स योजना पर रोक लगा दी है। जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा कि काले धन पर काबू पाने का एकमात्र तरीक़ा इलेक्टोरल बॉन्ड नहीं हो सकता है। यह निर्णय संविधानसम्मत होने के साथ जनअपेक्षाओं के अनुरूप भी है। कोर्ट ने स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया को भी आदेश दिया है कि वह 6 मार्च, 2024 तक उन सभी राजनीतिक दलों के नाम व प्राप्त राशि निर्वाचन आयोग को बतलाये जिन्होंने इस योजना का लाभ उठाया है और इस जानकारी को आयोग 13 मार्च तक अपनी वेबसाइट पर साझा करे। इससे ज़ाहिर होगा कि किस दल ने किससे और कितनी राशि प्राप्त की है। इस तरह सूचना के अधिकार की रक्षा, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, पारदर्शिता एवं चुनावी सुधार की चारों दिशाओं के क्षितिजों का स्पर्श करने वाला यह निर्णय संसदीय प्रणाली के शुद्धिकरण की राह में मील का पत्थर कहा जा सकता है।

इस योजना की वैधता को चुनौती देने वाली याचिका की सुनवाई करते हुए प्रमुख न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता में 5 सदस्यीय बेंच ने एकमत से इसे असंवैधानिक करार देते हुए कहा कि यह सूचना के अधिकार के नियम का उल्लंघन है। उल्लेखनीय है कि भारतीय जनता पार्टी की केन्द्र सरकार ने 2017 में यह योजना एक वित्त अधिनियम के रूप में लोकसभा से पारित कराई गई थी, जिसे 29 जून, 2018 को कानूनन लागू किया गया था। स्टेट बैंक ऑफ इंडिया की चुनिंदा शाखाओं से कोई भी नागरिक इस बॉण्ड को ख़रीदकर अपने पसंदीदा दल को चंदे के रूप में दे सकता था। इसे एक तरह से राजनीतिक दलों की गुमनाम तरीके से मदद करना भी कहा जा सकता है।

इस योजना को लेकर सुप्रीम कोर्ट का मानना है कि वोटर को यह जानने का हक है कि राजनीतिक दलों के पास धन कहाँ से आ रहा है? उसने यह भी कहा कि यह योजना नागरिकों के सूचना के अधिकार का उल्लंघन करती है, जिसके कारण संविधान के अनुच्छेद 19(1)(ए) में उल्लिखित अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रभाव पड़ता है। सुनवाई के दौरान सरकार की दलील थी कि इससे राजनैतिक दलों की फ़ण्डिंग में काले धन का इस्तेमाल रुकेगा तथा फ़ण्डिंग साफ़-सुथरी होगी। कोर्ट ने इसे अस्वीकार करते हुए कहा कि उसके दूसरे तरीके भी हैं। सुप्रीम कोर्ट ने इसकी जानकारी जनता को न देने की सरकार के अटॉर्नी जनरल की यह दलील ख़ारिज कर दी जिसमें कहा गया कि उचित प्रतिबन्धों के अधीन हुए बिना ‘कुछ भी’ और ‘सब कुछ’ जानने का अधिकार नहीं दिया जा सकता।

यह दुर्भाग्यपूर्ण है जनता को यह जानने का अधिकार नहीं है कि इस योजना में किस पार्टी को किसने कितना चंदा दिया। इस तरह सरकार ने इसे जनता की पहुंच से दूर रखा है जिसके कारण इसकी विश्वसनीयता एवं पारदर्शिता दोनों ही संदेहों के घेरे में रही। इस योजना के नियमों के अनुसार एसबीआई की निर्दिष्ट शाखाओं से 1 हज़ार, 10 हज़ार, 1 लाख, 10 लाख और 1 करोड़ रुपए तक के बॉण्ड्स खरीदे जा सकते हैं। इसकी वैधता 15 दिनों की है जिस अवधि में जनप्रतिनिधित्व कानून के अंतर्गत पंजीकृत एवं पिछले चुनाव में कम से कम 1 प्रतिशत वोट पाने वाले दलों को प्राप्त सहयोग राशि का इस्तेमाल करना ज़रूरी है। किसी राजनीतिक दल को दान देने के लिए उन्हें केवाईसी-अनुपालक खाते के माध्यम से खरीदा जा सकता था। राजनीतिक दलों को इन्हें 15 दिनों के भीतर भुनाना होता था।

दानकर्ता का नाम और अन्य जानकारी दस्तावेज पर दर्ज नहीं की जाती है और इस प्रकार चुनावी बांड को गुमनाम कहा जाता है। किसी व्यक्ति या कंपनी की तरफ से खरीदे जाने वाले चुनावी बांड की संख्या पर कोई सीमा नहीं थी। सरकार ने 2016 और 2017 के वित्त अधिनियम के माध्यम से चुनावी बांड योजना शुरू करने के लिए चार अधिनियमों में संशोधन किया था। ये संशोधन अधिनियम लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम , 1951, (आरपीए), कंपनी अधिनियम, 2013, आयकर अधिनियम, 1961, और विदेशी योगदान विनियमन अधिनियम, 2010 (एफसीआरए), 2016 और 2017 के वित्त अधिनियमों के माध्यम से थे। 2017 में केंद्र सरकार ने इलेक्टोरल बॉन्ड स्कीम को वित्त विधेयक के रूप में सदन में पेश किया था। संसद से पास होने के बाद 29 जनवरी 2018 को इलेक्टोरल बॉन्ड स्कीम की अधिसूचना जारी की गई थी।

इस बाबत कई वकीलों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, सिविल सोसायटियों तथा चुनावी सुधार के पक्षधरों ने आरोप लगाया था कि इसके माध्यम से कार्पोरेट घराने, व्यवसायी एवं वे लोग जो सरकारों से अपने काम कराना चाहते हैं, ये बॉण्ड्स ख़रीदकर राजनीतिक दलों से नज़दीकियां बढ़ा सकते हैं। इस बात पर इसलिये सहज विश्वास किया जा सकता है क्योंकि भाजपा सरकार की कारोबारी व उद्योग जगत से नज़दीकियां ज्ञात हैं। बाद में यह बात सही भी साबित हुई क्योंकि भाजपा को सबसे ज्यादा चंदा प्राप्त हुआ- करीब 5300 करोड़ रुपये। लोग जानना चाहते हैं कि चंदा देने वाले कौन हैं? और उन्होंने कितना चंदा दिया है? इन्हीं शंकाओं के साथ सुप्रीम कोर्ट को दो याचिकाएं प्राप्त हुई थीं। एक तो थी एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफ़ॉर्म्स (2017) की एवं दूसरी मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (2018) ने दाखिल की थी। इन दोनों में ही कहा गया कि इससे देशी-विदेशी चंदे की बाढ़ आ जायेगी जिसके जरिये चुनावी भ्रष्टाचार को वैध बनाया जायेगा। इसे रिश्वतखोरी भी कहा गया।

इस योजना के कारण भाजपा ने जो सम्पत्ति बटोरी है उसके कारण उसे चुनाव लड़ने में विरोधी दलों के मुकाबले बढ़त मिल जाती है। भाजपा को मिली उपरोक्त राशि के मुकाबले मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस को केवल 952 करोड़, तृणमूल कांग्रेस को लगभग 768 करोड़ तथा एनसीपी को सिर्फ 63.75 करोड़ रुपए मिले हैं। सही है कि इलेक्टोरल बॉण्ड्स योजना से कमोबेश अनेक दल लाभान्वित हुए हैं लेकिन माना जाता है कि इस फ़ैसले से सबसे ज्यादा अड़चन भाजपा को ही होगी क्योंकि यह निर्णय ऐसे वक्त पर आया है जबकि लोकसभा के चुनाव कुछ ही महीनों की दूरी पर हैं। नरेन्द्र मोदी को तीसरी बार प्रधानमंत्री बनाने के लिये बेताब भाजपा ने इस बार खुद के लिये 370 और अपने गठबन्धन (एनडीए) के साथ मिलकर 400 पार का नारा दिया है।

ज़ाहिर है कि लगभग सभी मोर्चों पर नाकाम मोदी-भाजपा ने जब यह लक्ष्य बनाया होगा तब केवल उनकी कथित लोकप्रियता इसका आधार नहीं रही होगी। बड़ी संख्या में सीटों पर चुनाव लड़ने के लिये भाजपा को बड़ी धन राशि चाहिये, जो उसकी प्रमुख ताक़त है। जानकारी सार्वजनिक होने से उजागर हो जायेगा कि भाजपा के मददगार कौन हैं? और भाजपा ने उनके चंदे के एवज में उन्हें क्या लाभ पहुंचाया है। यह भी देखना होगा कि मोदी व भाजपा इस बात के क्या उपाय करते हैं कि शीर्ष अदालत के इस फ़ैसले को न माना जाये, जो सीधे तौर पर उसके चुनावी हितों के खिलाफ है। इसकी कोई भी कसर भाजपा छोड़ने वाली नहीं है।

चुनावी बॉण्ड्स पर सुप्रीम कोर्ट का रोक चुनाव पर असर पूरी तरह से नहीं पड़ेगा। चुनावी बॉण्ड्स केवल एक चुनावी प्रक्रिया हैं और इनका प्रभाव सीमित होता है। सुप्रीम कोर्ट का रोक या निर्देश इन बॉण्ड्स पर होने वाले व्यापक प्रभाव को नहीं बदल सकता है। चुनावी बॉण्ड्स का उपयोग पार्टियों के लिए चुनावी धन संग्रहण के लिए होता है, और इसका प्रभाव सीमित होता है। सुप्रीम कोर्ट के निर्देश केवल इस प्रक्रिया पर होने वाले प्रभाव को मोड़ सकते हैं, लेकिन चुनाव पर सम्पूर्ण प्रभाव पर नहीं। चुनावी बॉण्ड्स का मुख्य उद्देश्य पार्टियों को चुनावी धन संग्रहण करने में मदद करना है, जिससे कि वे चुनावी प्रचार और कार्यक्रमों को संचालित कर सकें। चुनावी बॉण्ड्स का मुख्य उद्देश्य पार्टियों को चुनावी धन संग्रहण करने में मदद करना है, जिससे कि वे चुनावी प्रचार और कार्यक्रमों को संचालित कर सकें। सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के माध्यम से संभावित प्रभावों में समाज, राजनीति और कानूनी प्रक्रिया पर प्रकार का प्रभाव पड़ सकता है। इसके साथ ही, सुप्रीम कोर्ट के निर्देश से चुनावी प्रक्रिया में परिवर्तन आ सकता है, जिससे कि चुनावी प्रक्रिया में सुधार हो सकता है। सुप्रीम कोर्ट के निर्देश से पूरे चुनाव प्रक्रिया पर प्रभाव पूरी तरह से नहीं होता है, क्योंकि चुनावी बॉण्ड्स केवल एक हिस्सा हैं, और उनका प्रभाव सीमित होता है।

रूपेश रॉय
राजनीति विज्ञान विभाग 
ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय दरभंगा