बंगाली समुदाय के घरों में शंख की ध्वनि के साथ गूंजा महालया का जाप

पितृपक्ष के अंतिम दिन शनिवार की अलसुबह बंगाली समुदाय के प्रत्येक घरों में शंखनाद के साथ महालया की जाप गूंज उठी और लोगों ने ‘महिषासुर मर्दिनी’ का पाठ सुना। बंगाली समुदाय में महालया का विशेष महत्व है। इस दिन सुबह-सुबह इनके घरों में शंख ध्वनि गूंजती है।

हिन्दू मान्यता के मुताबिक महालया के दिन मूर्तिकार मां दुर्गा की आंखें बनाते हैं और उनमें रंग भरने का काम करते हैं। इस काम से पहले वह विशेष पूजा भी करते हैं। महालया के बाद ही मां दुर्गा की मूर्तियों को अंतिम रूप दिया जाता है और वह पंडालों की शोभा बढ़ाती हैं। इन सभी के अलावा एक ऐसी चीज़ भी है जिसके बिना महालया अधूरा है और वह रेडियो पर प्रसारित होने वाला प्रख्यात बंगाली नाटककार बीरेंद्र कृष्णा भद्रा का शो ‘महिषासुर मर्दिनी’ है।

भद्रा के द्वारा जाप किये गये ‘चंडीपाठ’ की न जाने कितनी पीढ़ियों को चार बजे सुबह-सुबह बिना किसी झुंझलाहट के जगाने में अहम योगदान रहा है।नवासी मिनट के अंतराल का यह शो सबसे पहले 1931 में लाइव परफॉरमेंस से शुरू किया गया था। उसके बाद 1966 से यह ऑल इंडिया रेडियो पर प्रत्येक वर्ष महालया के दिन प्रसारित होने लगा।

बानी कुमार द्वारा लिखित यह शो पौराणिक कथाओं, लोकगीत और संस्कृत श्लोक का संगम है। इनमें सबसे ज्यादा भद्रा द्वारा इस शो का वर्णन इसे सभी अन्य कार्यक्रमों से भिन्न और ख़ास बनाता है। यह कार्यक्रम आज भी सुनने में उतना ही नया लगता है, जितना 90 साल पहले जब यह पहली बार शुरू होने के दौरान लगता था।

अतीत में एक बार आकाशवाणी ने इस शो को बदलकर इसकी जगह दूसरा कार्यक्रम प्रसारित करने का सोचा। वर्ष 1976 में आकाशवाणी ने उत्तम कुमार के शो ‘दुर्गा दुर्गतिहारिणी’ को प्रसारित किया, जिसके बाद उन्हें बड़े पैमाने पर श्रोताओं की नाराजगी सहनी पड़ी और फिर दोबारा भद्रा का शो प्रसारित करना पड़ा।

कार्यक्रम से जुड़ा एक और दिलचस्प किस्सा है, जब 1931 में यह कार्यक्रम शुरू होने वाला था, उस वक्त बंगाल के रूढ़िवादी हिंदू ब्राह्मणों के एक समुदाय ने कार्यक्रम में भद्रा साहब के शामिल होने का विरोध किया। उनके अनुसार वह ‘चंडीपाठ’ के पाठ के लिए अयोग्य थे, क्योंकि वह जाति से ब्राह्मण नहीं थे। यहां तक कि आकाशवाणी में कार्यरत एक वरिष्ठ अधिकारी ने भी महिषासुर मर्दिनी में उनके काम करने पर असहमति जतायी थी। शो के लेखक बानी कुमार ने हालांकि इन विरोधों पर ध्यान नहीं दिया और योजना के साथ आगे बढ़े।

एक साधारण जीवन शैली को मानने वाले भद्रा साहब ने 75 रुपये प्रति माह के वेतन पर आकाशवाणी के साथ अपनी अनुबंध की नौकरी जारी रखी। उन्होंने कभी भी अपने शो की सफलता पर ज्यादा रकम की मांग नही की। यहां तक कि 1970 में उनके सेवानिवृत्त होने पर उन्हें पेंशन तक नसीब नहीं हुआ।

वर्ष 2006 में महालया के दिन आकाशवाणी ने सारेगामा को शो का कॉपीराइट बेच दिया और भ्रद्रा की बेटी सुजाता को रॉयल्टी के रूप में 50,917 रुपये प्रदान भेजे। बाद में सीडी और कैसेट टेप पर रिकॉर्ड की गयी प्रतियों की बढ़ती बिक्री से भद्रा का संस्करण और अधिक लोकप्रिय हो गया। भद्रा साहब 1991 में इस दुनिया को अलविदा कह गये, लेकिन आज भी महालया का दिन उनके कार्यक्रम के बिना अधूरा लगता है।