उच्चतम न्यायालय ने बिहार के शैक्षणिक संस्थानों और सार्वजनिक नौकरियों में पिछड़े वर्गों (ओबीसी), अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों (एससी/एसटी) के लिए आरक्षण की सीमा 50 से बढ़ाकर 65 फीसदी करने के राज्य के एक कानून को रद्द करने वाले पटना उच्च न्यायालय के 20 जून के फैसले पर सोमवार को रोक लगाने से इनकार कर दिया, लेकिन कहा कि वह राज्य सरकार की विशेष अनुमति याचिका पर विचार करेगा।
मुख्य न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति जे बी पारदीवाला और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा की पीठ ने संबंधित पक्षों की दलीलें सुनने के बाद यह आदेश पारित किया।
याचिकाकर्ता राज्य सरकार की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता श्याम दीवान की इस दलील पर कि नए कानून के अनुसार बहुत सारे साक्षात्कार चल रहे हैं, पीठ ने कहा, “हम इस स्तर पर रोक लगाने के लिए इच्छुक नहीं हैं…हम मामले को सितंबर में अंतिम सुनवाई के लिए सूचीबद्ध करेंगे।”
शीर्ष अदालत ने उच्च न्यायालय ने फैसले पर रोक लगाने के आवेदन पर नोटिस जारी करने से भी इनकार कर दिया।
अपनी याचिका में बिहार सरकार ने उच्च न्यायालय के इस मत की वैधता पर सवाल उठाया है, जिसमें उसने आरक्षण वृद्धि ने रोजगार और शिक्षा के मामलों में नागरिकों के लिए समान अवसर के अधिकार का उल्लंघन माना है।
सरकार ने कहा कि उच्च न्यायालय ने राज्य सरकार द्वारा किए गए जाति सर्वेक्षण के बाद पारित बिहार में नौकरियों और सेवाओं में रिक्तियों का आरक्षण (अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए) संशोधन अधिनियम 2023 को गलत तरीके से रद्द कर दिया।
विशेष अनुमति याचिका में कहा गया है, “बिहार एकमात्र राज्य है, जिसने राज्य की पूरी आबादी की सामाजिक-आर्थिक और शैक्षिक स्थितियों पर अपनी जाति सर्वेक्षण रिपोर्ट प्रकाशित की। राज्य ने इस न्यायालय के बाध्यकारी निर्णयों का अनुपालन किया और फिर आरक्षण अधिनियमों में संशोधन किया है।”
पटना उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के. विनोद चंद्रन और न्यायमूर्ति हरीश कुमार की पीठ ने 2023 के आरक्षण संबंधी राज्य के कानून को संविधान के अधिकार क्षेत्र से बाहर और संविधान के अनुच्छेद 14, 15 और 16 के तहत समानता खंड का उल्लंघन करने वाला घोषित किया था।
उच्च न्यायालय ने कहा था, “राज्य को 50 प्रतिशत की सीमा के भीतर आरक्षण प्रतिशत पर आत्मनिरीक्षण करना चाहिए तथा ‘क्रीमी लेयर’ को लाभ से बाहर रखना चाहिए।”
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