चीन के बेल्ट ऐंड रोड प्रोजेक्ट से जुड़ने वाले सबसे शुरुआती देशों में से एक पाकिस्तान था। यही नहीं भारत के हिस्से वाले जम्मू-कश्मीर प्रांत के गिलगित-बाल्टिस्तान क्षेत्र से ही यह प्रोजेक्ट भी गुजर रहा है, जिसका भारत ने विरोध किया था। चीन और पाकिस्तान के बीच बने इस कॉरिडोर को चाइना पाकिस्तान इकनॉमिक कॉरिडोर नाम दिया गया है, लेकिन आर्थिक प्रगति की बात करें तो करीब दो दशक बीतने के बाद भी पाकिस्तान खाली हाथ है। यही नहीं जिस ग्वादर पोर्ट को गाजे-बाजे के साथ 2007 में पूरा किया गया और 2013 में चीनी कंपनियों को सौंप दिया गया, वह भी फेल साबित हो रहा है।
इसकी वजह यह है कि यहां जहाज नहीं आ रहे हैं। मालवाहक जहाज इस पोर्ट की बजाय कराची ही जाना पसंद कर रहे हैं। इसकी वजह यह भी है कि यहां एक साल में 1,37,000 ही 20 फुट के स्टैंडर्ड कंटेनर हैंडल किए जा सकते हैं। वहीं कराची पोर्ट की क्षमता 42 लाख कंटेनर्स की है। पाकिस्तान और चीन ने इस CPEC और ग्वादर पोर्ट का प्लान यह सोचकर बनाया था कि इससे शिनजियांग से समुद्र तक कनेक्टिविटी हो जाएगी। इसका जरिया पाकिस्तान बनेगा और ग्वादर को दुबई बनाने का सपना देखा जा रहा था। पाकिस्तान को लग रहा था कि इसके जरिए उसे बड़े पैमाने पर विदेशी निवेश मिलेगा और समुद्र किनारे बसे ग्वादर को दुबई जैसी चमक-धमक मिलेगी।
ग्वादर का रणनीतिक महत्व भी है क्योंकि यह कराची से महज 500 किलोमीटर की दूरी पर है और ईरान की सीमा से भी नजदीक है। यह पोर्ट CPEC की लाइफलाइन कहा जा रहा था, लेकिन जिस तरह से यहां असफलता हाथ लगी है, वह पाकिस्तान और चीन दोनों के लिए निराशाजनक है। हालांकि इसमें पाकिस्तान को ज्यादा घाटा है और वह आर्थिक संकट में भी फंस सकता है। पाकिस्तान के फंसने की वजह यह है कि ग्वादर पोर्ट के लिए लोन चीन के बैंकों ने दिया है। फिर ग्वादर के निर्माण के ठेके भी चीनी कंपनियों को मिले और बड़े पैमाने पर वह रकम चीन के ही पास पहुंच गई।
पाकिस्तान के सिर पर कर्ज, चीन का पैसा उसके ही पास
पोर्ट की लागत के लिए कर्ज लिया गया था, वह पाकिस्तान के सिर पर है। इस तरह ग्वादर का विकास भी नहीं हो सका और कर्ज भी देना होगा। चीन के मामलों का अध्ययन करने वाले जैकब मार्डेल ने डॉएचे वेले से कहा, ‘इस मॉडल के तहत चीनी कंपनियों को बड़ी सब्सिडी मिलती है। चीनी बैंक पहले उन देशों की सरकारों को लोन देते हैं, जहां प्रोजेक्ट बन रहा होता है। इसके बाद ठेके चीनी कंपनियों को ही मिलते हैं। इस तरह चीन अपना पैसा वापस ले लेता है और उन देशों के ऊपर कर्ज आता है, जहां प्रोजेक्ट होता है। इस तरह चीन का पैसा एक तरह से उसके ही पास रहता है और दूसरे देश के टैक्सपेयर्स पर बोझ बढ़ता है।’