जल जीवन है। यह पढ़ने में बेहद आम सी बात लग सकती है लेकिन बड़ी गहरी बात है। हमारा शरीर 70 प्रतिशत पानी से बना है। हमारी पृथ्वी पर उसी अनुपात में पानी है। बिना खाने के हम फिर भी रह सकते हैं, लेकिन बिना पानी के हमारा जीना कुछ ही समय में मुश्किल हो जाता है। और यह तो हमने निजी तौर पर अनुभव भी किया होगा। इन तथ्यों से साफ़ समझ आता है कि जल को जीवन क्यों कहा जाता है।
लेकिन कोई है जो इस जीवन की लीला को समाप्त करने में लगा हुआ है। और वो कोई और नहीं, आप और हम ही हैं।
स्थिति की गंभीरता को इसी बात से समझा जा सकता है कि संयुक्त राष्ट्र की नई रिपोर्ट के अनुसार, भारत साल 2025 तक भूजल की कमी के टिपिंग पॉइंट पर पहुंच जाएगा। सरल शब्दों में कहें तो टिपिंग पॉइंट वह बिंदु है जहाँ पहुँच कर छोटे बदलावों या घटनाओं की कोई श्रृंखला इतनी महत्वपूर्ण हो जाती है कि वह एक बड़ा और महत्वपूर्ण परिवर्तन ली आती है।
भूजल की कमी के संदर्भ में टिपिंग पॉइंट का मतलब हुआ वो स्थिति जहां पानी की कमी की समस्या एक विकराल रूप ले लेगी और जहां से इस समस्या से उबरना बेहद मुश्किल हो जाएगा। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत के इंडो-गेंजेटिक बेसिन के कुछ प्रमुख क्षेत्र पहले ही भूजल कमी के टिपिंग पॉइंट को पार कर चुके हैं और भारत के पूरे उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र में 2025 तक भूजल की गंभीर कमी होने का अनुमान है।
“इंटरकनेक्टेड डिजास्टर रिस्क रिपोर्ट 2023” शीर्षक से प्रकाशित इस रिपोर्ट में संयुक्त राष्ट्र विश्वविद्यालय – पर्यावरण और मानव सुरक्षा संस्थान (यूएनयू-ईएचएस) ने उल्लेख किया है कि दुनिया 6 पर्यावरणीय टिपिंग पॉइंट्स की ओर बढ़ रही है: तीव्र विलुप्ति, भूजल की कमी, पर्वतीय हिमनदों का पिघलना, अंतरिक्ष कचरा, असहनीय गर्मी, और एक अनिश्चित भविष्य।
बात भारत की
भारत में पानी की बर्बादी की बात करें तो इंटरनेट पर उपलब्ध विश्वसनीय स्रोतों के अनुसार:
प्रत्येक भारतीय प्रतिदिन 45 लीटर तक पानी बर्बाद करता है।
जहां कोलकाता अपने प्राप्त पानी का 50% बर्बाद कर देता है, वहीं बेंगलुरु प्राप्त पानी का 49% बर्बाद कर देता है।
नई दिल्ली, चेन्नई और मुंबई में पानी की बर्बादी का आंकड़ा क्रमशः 26%, 20% और 18% है।
पाइप लाइन के लीकेज, वाहनों को ताजे पानी से धोने, और दांतों को ब्रश करते या शेविंग करते समय नल बंद न करने के कारण भी बड़ी मात्रा में पानी बर्बाद हो जाता है।
शहरी क्षेत्रों में उत्पन्न होने वाले लगभग 70% सीवेज वाटर का ट्रीटमेंट नहीं किया जाता है और यह पानी नदियों और भूमि सहित जल निकायों को प्रदूषित करता है।
घरों में भी वेस्ट वाटर का सही उपयोग नहीं हो पाता और उसका लगभग 80% नालियों में बह जाता है।
तेल रिसाव, सीवेज ट्रीटमेंट की कमी, खुले में शौच आदि भारत में जल प्रदूषण के प्रमुख कारण हैं।
समस्या साफ़ दिख रही है
इन आंकड़ों और संयुक्त राष्ट्र की ताज़ा रिपोर्ट को पढ़ने के बाद समस्या साफ़ दिख रही है। लेकिन ऐसा नहीं कि कुछ किया नहीं जा सकता। समस्या के साथ ही आता है समाधान। इस संदर्भ में समाधान है निजी स्तर पर कार्यवाही। ऐसा इसलिए क्योंकि बदलती जलवायु में जल संरक्षण बेहद प्रासंगिक होता जा रहा है। जल संरक्षण प्राकृतिक पारिस्थितिक तंत्र को संरक्षित करने और ऊर्जा खपत को कम करके जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को कम करता है। साथ ही कार्बन एमिशन को कम करने के लिए सस्टेनेबल वाटर मैनेजमेंट एक केंद्रीय घटक है। चरम मौसमी घटनाएं पानी को अधिक दुर्लभ, अधिक अप्रत्याशित, अधिक प्रदूषित या यह तीनों बना रही हैं। इसलिए, जल संसाधनों पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को कम करने के लिए टिकाऊ जल प्रबंधन प्रथाओं को बढ़ावा देना और जल संरक्षण के महत्व के बारे में जागरूकता बढ़ाना महत्वपूर्ण है।
आगे बढ़ें उससे पहले एक सवाल। क्या आपको पता है एक सामान्य नल प्रति मिनट लगभग 2 गैलन (7.6 लीटर) पानी दे सकता है? मतलब अगर एक नल को एक घंटे के लिए खुला छोड़ दिया जाए, तो इससे लगभग 120 गैलन (454 लीटर) पानी बर्बाद हो जाएगा।
यह एक सरल सा तथ्य है लेकिन भारत की आबादी याद करने पर इसका प्रभाव समझ आता है। इससे एक बार फिर जल संरक्षण प्रयासों की प्रासंगिकता समझ आती है।
अगर इस समस्या के भोगी के तौर पर हम अपने बच्चों को देखें तो पाएंगे कि उनका भविष्य खतरे में हैं। वो इस समस्या का हिस्सा बन रहे हैं। लेकिन हमारा कर्तव्य यह है कि अब हम उन्हें समस्या के समाधान का हिस्सा भी बनाएँ।
भूमिका बच्चों की
बच्चे स्थायी जल प्रबंधन प्रथाओं को बढ़ावा देने और जल संसाधनों पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को कम करने के लिए जल संरक्षण के महत्व के बारे में जागरूकता बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।
टिकाऊ भविष्य का निर्माण: बच्चों को जल संरक्षण के बारे में पढ़ाने से उन्हें भविष्य के लिए टिकाऊ प्रथाओं के महत्व को समझने में मदद मिलती है। वे इस बात से अवगत हो जाते हैं कि उनके आज के कार्यों का कल की स्वच्छ जल की उपलब्धता पर प्रभाव पड़ेगा। कम उम्र में पानी बचाने की आदतें विकसित करके, बच्चे अधिक टिकाऊ और लचीली दुनिया के निर्माण में योगदान देते हैं।
वैश्विक मुद्दों के बारे में जागरूकता: जल संरक्षण शिक्षा बच्चों को पानी से संबंधित वैश्विक मुद्दों, जैसे स्वच्छ पेयजल तक पहुंच, स्वच्छता और कमजोर समुदायों पर पानी की कमी के प्रभाव से अवगत कराती है। यह ज्ञान सहानुभूति, करुणा और वैश्विक परिप्रेक्ष्य विकसित करता है। बच्चों को अपने कार्यों के व्यापक निहितार्थों पर विचार करने और परिवर्तन का समर्थक बनने के लिए प्रोत्साहित करता है।
व्यक्तिगत जिम्मेदारी: बच्चों को जल संरक्षण के बारे में पढ़ाने से सामुदायिक सहभागिता के द्वार खुलते हैं। वे स्थानीय पहलों में सक्रिय रूप से भाग ले सकते हैं, जैसे जल-बचत अभियान, सामुदायिक उद्यान, या स्वयंसेवी परियोजनाएं जो जिम्मेदार जल उपयोग को बढ़ावा देती हैं। यह भागीदारी पर्यावरण प्रबंधन के प्रति अपनेपन और सामूहिक जिम्मेदारी की भावना को बढ़ावा देती है।
इंटरैक्टिव गतिविधियों में शामिल होना: जल संरक्षण के महत्व को प्रदर्शित करने वाली इंटरैक्टिव गतिविधियों में बच्चों को शामिल करना उन्हें जल संरक्षण के बारे में सिखाने का एक प्रभावी तरीका हो सकता है। उदाहरण के लिए, जल उपचार संयंत्रों, प्रकृति भंडारों या आर्द्रभूमियों की क्षेत्रीय यात्राएं आयोजित करने से बच्चों को जल संरक्षण प्रयासों और प्राकृतिक आवासों के संरक्षण के महत्व का प्रत्यक्ष अनुभव मिल सकता है।
निगरानी: बच्चे अपने घरों और स्कूलों में पानी के उपयोग की निगरानी कर सकते हैं और किसी भी रिसाव या बर्बादी की रिपोर्ट अपने माता-पिता या शिक्षकों को कर सकते हैं। उन्हें जल-बचत प्रयासों के ठोस परिणाम दिखाने के लिए जल संरक्षण विशेषज्ञों के रूप में भी कर्तव्य सौंपे जा सकते हैं।
दिव्यांग बच्चे क्यों नहीं?
अमूमन यह देखा गया है कि किसी भी प्रकार की गतिविधियों में दिव्यांग बच्चों को शामिल नहीं करवाया जाता और उन्हें दिव्यांगता के कारण कमतर या किसी काम का नहीं आंका जाता है। जबकि आंकड़ों पर गौर किया जाए तो नगण्य समझी जाने वाली यह आबादी संख्यात्मक परिवर्तन लाने में सहायक हो सकती है।
साल 2011 में, भारत की कुल आबादी में से लगभग 26.8 मिलियन बच्चे थे। जिसमें से 7.62 प्रतिशत यानी 2.04 मिलियन दिव्यांग बच्चे थे। यूनेस्को के अनुसार, भारत में 80 लाख दिव्यांग बच्चे रहते हैं। यदि जागरूकता बढ़ने के कारण एक दिव्यांग बच्चा अपने जीवन काल में बहते हुए नल को बंद करके एक घंटे की पानी की बर्बादी को रोक ले तो लगभग 160,00000 गैलन पानी बचा सकते हैं, जिससे लगभग 2 लाख लोगों के लिए एक दिन के पीने का पानी की व्यवस्था की जा सकती है। निश्चित रूप से बहुत सारी ऐसी गतिविधियां हैं जो बच्चों के साथ विद्यालय स्तर पर कराई जाती है जिससे कि बच्चे पानी और उसके महत्व को समझ सके परंतु जैसे ही बात दिव्यांग बच्चों की आती है तो दिव्यांग बच्चों का विद्यालय में समावेशन ही अपने आप में एक समस्या के रूप में माना जाता है तो उनका इन जल संरक्षण की गतिविधियों में सहयोग दूर की कौड़ी नजर आती है। सच्चाई यह है कि यह इतना मुश्किल भी नहीं। यदि हम दिव्यांग बच्चों को इन विभिन्न गतिविधियों में शामिल करेंगे तो उनमें जागरूकता जल संरक्षण की जागरूकता के साथ साथ विद्यालय में समावेशन निश्चित ही बहुत सरल हो जाएगा। जब दिव्यांग बच्चे विभिन्न गतिविधियों में दूसरे बच्चों के साथ सहयोग करते हैं तो वह बच्चे आपस में जुड़ते हैं।
इसके साथ ही साथ वह बच्चा स्वयं को विद्यालय और इसके माहौल के साथ सहज महसूस करता है। दिव्यांग बच्चों में आत्मविश्वास पैदा होता है कि वह भी गतिविधियों में सहयोग करने में सक्षम है,अपना योगदान दे रहा है। हमारे और आपके लिए यह एक बहुत सामान्य,छोटी सी बात हो सकती है कि कोई दिव्यांग बच्चा किसी गतिविधि में प्रतिभाग कर रहा है परंतु एक बच्चे के लिए यह एक बहुत बड़ी बात है कि वह किसी गतिविधि का हिस्सा है। इस तरह एक तरफ तो बच्चा जल संरक्षण के महत्व को समझ रहा है और दूसरी तरफ उसके समावेशन की समस्या का भी समाधान हो रहा है और जब बच्चे आपस में विचार विमर्श करके सहयोग करके एक दूसरे से सीख कर आगे बढ़ते हैं तो इस तरह की बहुत सारी समस्याओं का समाधान आसानी से किया जा सकता है।
अनुभव यह भी बताता है कि दिव्यांग बच्चे अन्य बच्चों की अपेक्षा अधिक संवेदनशील होते हैं। औटिस्म से ग्रसित बच्चों को बार बार निर्देशों को दोहरा कर बताया जा सकता है तथा बौद्धिक रूप से अक्षम बच्चों को बहुत ही सरल निर्देशों और अनुकरण के माध्यम से जल संरक्षण के सरल उपायों को व्यवहारिक बनाया जा सकता है।
अनुसरण और अनुकरण
बच्चा चाहें सामान्य हो या दिव्यांग उसके सीखने के कई तरीके होते हैं। इनमें से एक महत्वपूर्ण तरीका अनुकरण और अनुसरण करना भी है। बच्चे अपने से बड़ों को कॉपी करते हैं एक रोल मॉडल के रूप में देखते हैं। तो सबसे पहले जल संरक्षण के दृष्टिकोण का विकास करना है तो बच्चों को वह करके दिखाना होगा। उन्हें जब अपने शिक्षक, माता-पिता या अभिभावक पानी बचाते हुए दिखेंगे तो वह अनुकरण करके वैसे ही हो जाएंगे।
वैसे ध्यान रहे कि जल संरक्षण संबंधी गतिविधियों का निर्धारण बच्चों की दिव्यांगता पर भी निर्भर होगा। दृष्टिबाधित बच्चे आपको अनुकरण करके नहीं सीख पाएंगे, परंतु वह कहानियों और कविताओं के माध्यम से संवेदनशील हो सकते हैं। बच्चा यदि सुनने और बोलने में असमर्थ है तो वह आपको देखकर, सांकेतिक भाषा से समझ सकता है कि पानी को हमें बचाना है। कला, चित्र, नाटक के माध्यम से संवेदीकरण किया जा सकता है। सभी बच्चों को एक साथ लेकर गतिविधियों में शामिल करना जल संरक्षण को व्यावहारिकता में परिवर्तित करने में बहुत कारगर सिद्ध होगा।
– दीपमाला पाण्डेय
(लेखिका बरेली के एक सरकारी विद्यालय में प्रधानाचार्या हैं और दिव्यांग बच्चों को शिक्षा और समाज की मुख्यधारा में लाने के अपने प्रयासों के चलते माननीय प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी के मन की बात कार्यक्रम में भी शामिल हो चुकी हैं।)